भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्म-पुनर्वास भी जियें / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:04, 29 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामस्वरूप 'सिन्दूर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम हिरण्य-वास जी चुके, निर्जन निर्वास भी जियें!
तन का इतिहास ही नहीं, मन का इतिहास भी जियें!

एक अन्तहीन ज्वार ने
सप्त-सिन्धु एक कर दिये,
अश्रु के त्रिलोकी दृग में
लीलाधर रूप भर दिये,
खण्ड-खण्ड श्वास जी चुके, चक्रवात रास भी जियें!

सूर्यमुखी आग पी रहे
चंद्रमुखी तृप्ति के लिये,
एक बिम्ब से जुड़े हुए
सृष्टि से विभक्ति के लिये,
शून्य का प्रवास जी चुके, प्राकृत संन्यास भी जियें!

स्वप्नजात इन्द्रजाल में
मन्वन्तर-कल्प खो गये,
होना था कल कि जो हमें
इस पल ही आज हो गये,
विस्थापन-त्रास जी चुके, आत्म-पुनर्वास भी जियें!

शब्द-सिद्ध अन्तरिक्ष में
अंतर्ध्वनि लीन हो गयी,
रस-विमुग्ध लय-समाधि में
चेतना प्रवीण हो गयी,
मुक्ति का प्रयास जी चुके, मुक्ति अनायास भी जियें!