भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्म-सम्बोधन / हरिपाल त्यागी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:59, 21 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिपाल त्यागी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ, भले मानुष
तू भी कुछ सीख ले
जमाना कहां से कहा
जा रहा है...!

तेरा यह ऊबा हुआ/बासी चेहरा
किसी काम का नहीं
इसलिए-कुछ कर
और नहीं तो
अपना सिर ही कड़ाही में
डाल दे,
बचे-खुचे बालों को डाई कर ले
या फिर-
दो-चार विग ही खरीद डाल
वर्ना पछताएगा
टापता रह जाएगा...

घर से निकलते वक्त/जेब में तहाकर रख ले
कुछ चेहरे/रबड़ की कुछ मुस्कानें
उठ/कदम आगे बढ़ा/कुछ कर
खुद को सादतपुर से ठेलकर
मंडी हाउस तक ला
सड़े हुए दांत नाली में फेंक दे
नकली दांतों से मुस्करा
जीने का कुछ तो सलीका सीख
ओ भले मानुष!