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आत्म छलना -3 / स्वदेश भारती

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आत्म छलना से लेकर
जनमत गणना तक
एक अप्रीतिकर आवाज़ गूँजती है
दिशान्त के आर-पार सिवान से शहर
झोपड़ी से अट्ठालिका
पल्लि-पथ से फुटपाथ,
सड़क से राजपथ तक ।

संसद, विधानसभा का बुर्ज़ का पता है
आज़ादी की बुढ़िया पथ-श्लथ ऊँघती है
बार-बार कई कई तरह से
आवाज़ें बदलती है
जनमत को आकर्षण-जाल में बान्धने
साम, दाम, दण्ड, भेद की राजनीति
लोभ और स्वार्थ के दायरे में
चक्कर लगाती है ।

देश की सीमा के आर पार
जनमानस के ऊपर
छा जाता तमो गुणी अन्धकार
सत्ताधारी अपनी लोलुप महत्वाकाँक्षा
का कुटिल षडयन्त्र रचता है
खण्ड-खण्ड हुए जनमत के सहारे
अराजकता की खाई में
गिरने से बचता है ।

कोलकाता, 2 अप्रैल 2014