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आदमी को ज़िन्दगी दे वो नज़ारा चाहिए / पुरुषोत्तम प्रतीक

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आदमी को ज़िन्दगी दे वो नज़ारा चाहिए
जो अँधेरा दूर कर दे वो सितारा चाहिए

कसमसाती हैं अँधेरी रात में यूँ बस्तियाँ
रौशनी-जैसा कहीं से कुछ इशारा चाहिए

ज़िन्दगी की इस नदी में हादसों की बाढ़ है
बाढ़ में नारा नहीं सबको किनारा चाहिए

क्यूँ समन्दर से कभी कोई नदी लौटी नहीं
और क्या बोलूँ मुझे उत्तर तुम्हारा चाहिए

हो ख़ुशी या ग़म बराबर इस तरह हिस्से करें
तुम रखो अपना मगर हमको हमारा चाहिए

पी गए कुछ लोग औरों की ख़िशी भी पी गए
दोस्तो, ऐसे नशे को तो उतारा चाहिए

कुछ न खाने से सचाई का ज़हर खा लें चलो
अब तसल्ली के लिए कुछ तो सहारा चाहिए