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आरूषि / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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जब सुबह हुई एक रोज़ टेलीविजन में
स्क्रीन से रिसने लगा लहू
ख़बर गर्म थी लेकिन जिस्म ठंडा था
आरुषि का क़त्ल हो गया
मिट्टी फिर मिट्टी हुई पर रूह कहाँ है?

तुम किसी रात उसकी गर्दन पर
साँस के बीज बो गए थे कभी
काश! इक बार जो आकर इसे देखा होता
कि कितना बड़ा हुआ ये दरख़्त
न कोई फूल न फल ही आया था अभी
सिर्फ़ पत्ते ही आंखों में रहा करते थे
और फैली थी जड़ें पूरे सीने में

कितनी बेरहमी से कल रात किसी ने उसकी
रेत डाला है सारी साँसों को
आरुषि का क़त्ल हो गया
भटकती रूह ने मेरी नज़्म में पनाह ली है!