भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आशिक़ों की सब्ज़ी / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:27, 7 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितने हैं इस जहां में सब्जी के इश्क वाले।
दिलशाद<ref>खुश</ref> सुर्ख आँखें, सर सब्ज़ मुँह उजाले<ref>नशे से चेहरे पर दमक</ref>।
पीते हैं सब्ज़ तुर्रे, खाते हैं तर निवाले।
क्या देखता है बैठा, ओ यार हुस्न वाले।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥1॥

गै़रों की तूने अक्सर, माजून<ref>अवलेह</ref> तो है खाई।
सुखऱ्ी ज़रा भी तेरी, आँखों तलक न आई।
गर देखनी है तुझको, कुछ ऐश की चढ़ाई।
उछले दिवाल, पाखें भन्नावे चारपाई।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥2॥

घोले है पोस्त<ref>अफीम</ref> तेरी, खातिर रक़ीब झड़वा।
अब पोस्ती करेगा, तुझको वह चोर भड़वा।
देखेगा जब तू लेगा, तेरा उतार खड़वा।
गर सैर देखनी है, तो करके दिल को कड़वा।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥3॥

खाकर अफ़ीम ज़ालिम मत हूजियो अफ़ीमी।
तन सूख कर खुजावे, आवाज़ होगी धीमी।
क्यों भिनभिना बना है, ऐ गुल अज़ार<ref>गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाला</ref> सीमी<ref>चांदी</ref>।
आशिक़ तो सब इसी के, मन मस्त हैं क़दीमी<ref>पुराने, पहले से ही</ref>।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥4॥

ताड़ी व सेंधी बूजा<ref>जौ की शराब</ref>, ज़ालिम अगर पियेगा।
फूलेगा पेट तेरा, या बैठ कै़ करेगा।
पीकर शराब नाहक, कीचड़ में गिर पड़ेगा।
और यह नशा तो कोठे, छज्जे प ले उड़ेगा।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥5॥

गांजा पिये से होगा, तेरा शऊर हुर्रा।
और चर्स के पिये से, तुझको लगेगा खुर्रा।
चाहे अगर उड़ाना, अश्रत का बाज़ जुर्रा।
तो पहन हार बद्धी, और सर पे रख के तुर्रा।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥6॥

हैं इस नशे में ज़ालिम, सौ रंग के धड़ाके।
कूंडी की डगमगाहट, सोंटे के सौ खड़ाके।
गर देखने हैं तुझको, कुछ ऐश के झड़ाके।
तो झाड़ अपने पंजे, और सर को झड़ झङ़ाके।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥7॥

सब्जी का वह नशा है, उड़ ग़म की धूल जावे।
तैयार तन बदन हो, और दिल भी फूल जावे।
आंखों के आगे जाकर, सरसों सी फूल जावे।
इश्रत<ref>खुशी</ref> की लहरें आवें, दुख दर्द भूल जावे।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥8॥

पैसा हो पास यारों, या मुफ़्लिसी<ref>ग़रीबी</ref> सहेंगे।
पर सब्ज़ियों के यां तो, दरिया वही बहेंगे।
कुंडी के उस तरफ़ को, या इस तरफ़ रहेंगे।
अब तो ‘नज़ीर’ प्यारे, हर दम यही कहेंगे।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥9॥

शब्दार्थ
<references/>