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इक सवाल खुदा-ए-बरतर से / साजीदा ज़ैदी

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हम इस ज़मीन ओ आसमाँ के दरमियाँ
हैरान हैं और सर-गराँ
ऐ ख़ुदा-ए-दो जहाँ !
ऐ हर्फ़-ए-कुन के राज़-दाँ !
ऐ मम्बा-ए-कौन-ओ-मकाँ !
इतना तो बतला दे
कोई ऐसी भी दुनिया है
जहाँ इंसानियत की साफ़ पेशानी पे
इल्म ओ फ़न की पौ फटती हो और
फ़िक्र ओ नज़र के आईनों से
नूर की किरनें उबलती हों
दिलों में ख़ैर ओ बरकत की दुआएँ गूँजती हों
सुब्ह दम आकाश के नीलम तले
जाम-ए-हक़ीक़त पी के जीने की तमन्ना रक़्स करती हो
जहाँ एहसास के कोहरे से
फ़िक्र-ए-नौ के तारे झिलमिलाते हों
जहाँ होंटों पे हर्फ़-आगही की जोत हो
आँखों से हैरत
ज़ेहन से विज्दान के चश्‍मे उबलते हों,
जहाँ रातों के सन्नाटे में
दिल महव-ए-नियाज़-ओ-नाज़ रहता हो
फ़ज़ा-ए-बे-कराँ के सहर का हमराज़ रहता हो
मोहब्बत, इश्‍क़, दिलदारी, वफ़ा उनवान-ए-हस्ती हों
उख़ूवत नर्म-गुफ़्तारी अता-ए-पैमाना-ए-दिल हों

ख़ुदा-ए-लम-यज़ल बतला
कोई ऐसी भी दुनिया है
कहीं ऐसा भी होता है

सियासत की फ़ुसूँ-साज़ी
तिजारत की ज़ियाँ-कारी
हवस की गर्म-बाज़ारी
किसी अय्यार-ए-कुव्वत की जहाँ-दारी
में दम घुटता है
हर लम्हा अज़ाब-ए-जावेदाँ मालूम होता है
‘‘ख़ुदा-वंद! ये तेरे सादा दिल बंदे कहाँ जाएँ ?’’