भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतना हुआ बस / निर्मल शुक्ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:53, 15 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रेत की भाषा
नहीं समझी लहर
इतना हुआ, बस !

बस प्रथाओं में रहो उलझे
यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ
इंगित करेंगी यह व्यथा है

सिलसिले
स्वीकार -अस्वीकार के
गिनते हुए ही
उंगलियाँ घिसतीं रहीं हैं
उम्र भर
इतना हुआ, बस !

जो कि अपना नाम तक भी
ले नहीं सकते सिरे से
लापता होते पते वे
ढूँढ़ते हैं सिरफिरे से

बेतुकी
उम्मीद के भी
हाथ फूले पाँव सूजे
बाँह रखकर कान पर
सोया शहर
इतना हुआ, बस !

दूध से उजले धुले सम्बन्ध
सब लिखते रहे हैं
किन्तु इस परिदृश्य में
वे बिंदु से दिखते रहे हैं

उद्दरण हैं
आज भी जो
रंग की संयोजना के
टूट कर दुहरा गई
उनकी कमर
इतना हुआ, बस !