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इस गृहस्थी में यही है साधना, आराधना / डी. एम. मिश्र

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इस गृहस्थी में यही है साधना, आराधना
कुछ मिलन की कल्पना है, कुछ विरह की कामना।

हम न शीशा हैं, न पत्थर हैं, न कोई शूल हैं
आदमी हैं हम, हमारी शक्ति कोमल भावना।

प्राण से अपने अधिक हैं मान देते प्यार को
जिंदगी से ख़ूबसूरत है किसी का चाहना।

किस तरह सुन्दर, सरस, रोचक जहां उसने रचा
है सृजन जिसके शिखर पर, मूल में है वासना।

पा लिया कुछ हँस लिया, कुछ खो गया कुछ रो लिया
फिर नयी माटी जुटायी, फिर नया बरतन बना।