भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस दौर में / नीलाभ

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:35, 2 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलाभ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हत्यारे और भी नफ़ीस होते जाते हैं
मारे जाने वाले और भी दयनीय

वह युग नहीं रहा जब बन्दी कहता था
वैसा ही सुलूक़ करो मेरे साथ
जैसा करता है राजा दूसरे राजा से

अब तो मारा जाने वाला
मनुष्य होने की भी दुहाई नहीं दे सकता
इसीलिए तो वह जा रहा है मारा

अनिश्चय के इस दौर में
सिर्फ़ बुराइयाँ भरोसे योग्य हैं
अच्छाइयाँ या तो अच्छाइयाँ नहीं रहीं
या फिर हो गयी हैं बाहर चलन से
खोटे सिक्कों की तरह

शैतान को अब अपने निष्ठावान पिट्ठुओं को
बुलाना नहीं पड़ता
मौजूद हैं मनुष्य ही अब
यह फ़र्ज़ निभाने को
पहले से बढ़ती हुई तादाद में