भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस्लाहे-सुख़न / मेला राम 'वफ़ा'

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:05, 12 अगस्त 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फ़ा साहिब अपने शागिर्दों के कलाम की इस्लाह बहुत अच्छे ढंग से करते थे और शेर को ज़मीन से उठा कर आसमान पर पहुंचा देते थे। वह स्वयं फ़रमाते हैं-
   
   काम ले फ़िक्र-सुख़न में दिल से भी जिन का दिमाग़
     इस ज़माने में हैं ऐसे ऐ 'वफ़ा' उस्ताद कम।

उन की इस्लाह का एक नमूना मुलाहज़ा फ़रमायें। प्रताप अखबार जालंधर के प्रांगण में मुशायरा था। वफ़ा साहिब मुशायरा के अध्यक्ष थे। श्री तिलक राज बेताब जालंधरी कलाम सुना रहे थे। उन्होंने शेर पढ़ा-

  का'बा ओ बुत कदा ओ दैर ओ कलीसा हो कर
  हम जो पहुंचे तो दरे-पीरे मुगां तक पहुँचे।

दूसरा मिसरा सुन कर वफ़ा साहिब ने सरे-मुशायरा कहा 'बेटा' दूसरा मिसरा यूँ पढ़ो-

 'आख़िरे-कार दरे पीरे-मुगां तक पहुँचे'

सभी ने इस्लाह की तारीफ़ की, बेताब साहब ने वफ़ा साहिब के पैरों को छुआ और शागिर्द बनने की दरख़्वास्त की और जो मंज़ूर हुई और बेताब साहिब को वफ़ा साहिब का शागिर्द होने का गौरव प्राप्त हुआ। लीजिये बेताब साहिब की एक इस्लाह शुदा ग़ज़ल के कुछ शेर मुलाहज़ा फरमाएं! शेर देखिए और उनके तेवर देखिए!

 अफ़साना गो है रौनके-फ़स्ले बहार का
 हर तार मेरे पैरहने-तार तार का।

जाता है बार बार गरेबां को हाथ क्यों
आ तो नहीं गया कहीं मौसम बहार का।

अल्लाह रे इश्क़ में मिरी बे-इख़्तियारियां
हद तो है ये कि दिल भी नहीं इख़्तियार का।