भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ईश्वर का सच / राकेश रोहित

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:31, 5 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रोहित |संग्रह = }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मैं समझता हूँ ई…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं समझता हूँ ईश्वर का सच
दुहराई गई कथाओं से सराबोर है
और जो बार-बार चमकता है
आत्मा में ईश्वर
वह केवल आत्मा का होना है ।

जीवन के सबसे बेहतर क्षणों में
जब भार नहीं लगता
जीवन का दिन-दिन
और स्वप्नों को डँसती नहीं
अधूरी कामनाएँ
तब भी मेरा स्वीकार
आरंभ होता है वैदिक संशय से
अगर अस्तित्वमान है ईश्वर
धरती पर देह धारण कर....

मैं समझता हूँ
सृष्टि की तमाम अँधेरी घाटियों में
केवल
सूनी सभ्यताओं की लकीरें हैं
कि जहाँ नहीं जाती कविता
वहाँ कोई नहीं जाता.
सारी प्रार्थनाओं से केवल
आलोकित होते हैं शब्द
कि ईश्वर का सच
ईश्वर को याद कर ईश्वर हो जाना है ।