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उधार का सुख / जगदीश जोशी / क्रान्ति कनाटे

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अब भी तो देर हुई उतनी कहाँ
मुझे उधार का सुख दे दो थोड़ा ।

ऐसी तो दी हमें बबूल की शाख
कि फूल कभी खिले नहीं !
और फिर रिश्ते भी दिए ऐसे रेतीले
कि पानी कभी ठहरा नहीं !

मैं तो हिरण की प्यास लिए दौड़ा
मुझे उधार का सुख दे दो थोड़ा ।

कुहुक दी है और दिए हैं पँख भी
और सामने है यह पत्थर की दीवार !
उड़ते धूलभरे बादल और आसपास
शिकारी ने फैलाया जाल !

आँख बन्दकर मैंने रतजगा ओढ़ा
मुझे उधार का सुख दे दो थोड़ा ।

मूल गुजराती से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे