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उपवन में जैसे खिलते हैं / अशेष श्रीवास्तव

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उपवन में जैसे खिलते हैं
वन में भी वैसे ही पल्लवित होते हैं...
रईसों को जैसी ख़ुशबू देते हैं
गरीबों को भी वह ही महक देते हैं...
मंदिरों में जैसे चढ़ते हैं
अर्थी पर भी वैसे ही सजते हैं...
जो उन्हें तोड़ते हैं
उन हाथों को भी अपनी महक देते हैं...
जानते हैं कि मुरझाना है एक दिन
फिर भी शिद्दत से खिलते-महकते हैं...
खुद की कोई चाह नहीं
नियति को सहर्ष स्वीकार करते हैं...
प्रशंसा आलोचना से परे
सुख दुख में एक समान
अमीरी ग़रीबी से बेपरवाह
अपने नैसर्गिक स्वभाव में मगन
फूल भी क्या चीज़ होते हैं...