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उलझनें / मनीष मूंदड़ा

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उलझने इतनी के सुलझते सुलझाते हाथ छूट जाएँगे
ना राहें रहेंगी
ना रहेंगे रहगुजर
दिल का आशियाँ ख़ाक हो जाएगा
कदम थक जाएँगे
दिल के जोश की चिंगरियाँ ठंडी पड़ जाएँगी
थकी आँखें फिर ना खुलेगी कभी
सूख जाएँगे अश्क़, धुल जाएँगे सारे संजोये सपने
मिट जाएगी ये हस्ती
रह जाएगा एक बुत बन कर यह जिस्म
सिफऱ् ताबूत होगा उठाने को
ना कोई गम, ना मरहम
साँसे बंद, आँखें बंद
जि़ंदगी की वह सारी जद्दोजहद बंद
शायद तब भी रहेंगी अजर
उनसुलझी वह सारी उलझनें
मेरी क़ब्र पर साफ नजर आएँगी
बनकर वह दरारें
सूखे बिखरे पत्तों के बीच...