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ऊर्जा / अतुल कुमार मित्तल

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नष्ट कभी नहीं होती
होती जाती है सिर्फ रूपान्तरित
ऊर्जा!

रूपान्तरित होती है बैटरी की ऊर्जा
बजाते बजाते अश्लील गीत
कुसंस्कारों में!

फरफराते पंखों से मीठी नींद
यों रूपान्तरित होती है विद्युत् ऊर्जा
सपनों में!

सूर्य की ऊर्जा से खौलता है मजदूर का खून
बहता है पसीना
और बन जाती हैं बहुमंजिला इमारतें
रक्त के उमड़ते प्रवाह से
जन्मती है मृग-मरीचिका
और अन्तत: सीमावाद, प्रांतवाद या जातिवाद
के दंगे
और तोड़ता है इस तरह रक्त का प्रवाह
जिस्म के बांध को
और विचार ऊर्जा
चढ़ जाती है दिमाग की ट्यूब्स में
और फिर होता है धमाका
-चेरनोबिल जैसा!
और बैठाया जाता है साईकियाट्रिस्ट्स का आयोग
दुर्घटना के कारणों की जाँच के लिए!
अनंत है अमर है है ऊर्जा
किन्तु क्यों स्वयं ही रूपान्तरित होती रहती है
भद्दे आकारों में
हम ढाल नहीं पाते
इस ऊर्जा से
मोनालिसा की एल मुस्कान
क्यों?

(15.10.86)