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एक आधी छोड़ी हुई औरत / प्रतिभा किरण

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माघ भी आधी रात से लग गया है
दो दिन से गेंहूँ धुल के रखा है
अब तक सूख ही न पाया है

तिल भी तो धोना था
पर कैसे सूखेगा सब?
आँसू भी अजब है
बिना धूप के सूख जाते है

दिन इतना भारी हो चला है
सब काम निपटाती हुई, सोचती हूँ
कि कितना गुड़ डालूँगी लड्डू में?
सब तुम्हारे हिसाब से ही है

अब ठंड बहुत लग रही है
कितना भी पहन लो
हाथ-पाँव काँपते रहते हैं

अम्मा ने ऊनी मोजा दिया था पहनने को
सब पहन-ओढ़ के लेटी रहती हूँ
इतना स्थिर हो चुका है सब
बस इस घड़ी की चक-चक चलती रहती है

अचानक से सीने में दर्द उठता है
फिर पसीने से लथपथ हो जाती हूँ

साईकिल की घंटी सुनकर लगता है
क्या पता तुम्हारी कोई चिट्ठी हो
उठती हूँ, फिर गिर जाती हूँ बिस्तर पर
पैरों में झुनझुनी पकड़ लेती है
गुस्से में उतार फेंकती हूँ ऊनी मोजा

रुक कर फिर किवाड़ से झाँकती हूँ तो
बाबूजी का पेंशन लिए अम्मा दिखती हैं
तुम्हीं ने तो कहा था कि
आओगे मुझे लेने,चार बजे वाली बस से

मेरे बक्से के साथ-साथ
तुम्हारी घड़ी चली आई थी
क्या पहनते हो अब कलाई में?

ये इंतज़ार के दिनों की गिनती
अनन्त से भी ज्यादा लगती है

मेरे बाल भी अब थोड़े सफेद हो गए हैं
लेकिन बिना माँग निकाले
जूड़ा बनाओ
तो पता नहीं चलता

पड़ोस वाली दीदी का भी ब्याह हो गया
पति पीटता है उनको
लेकिन जब-जब वो मायके आती हैं
उन्हें लेने आ जाता है

पूछ रहीं थीं कि तुम कब आ रहे हो
मुझे लेने?

तुमने कभी हाथ भी नहीं उठाया है मुझ पर
क्या इसी वजह से नजरों में गिर गये हो तुम
अपने परिवार के, समाज के?

या फिर अपनी कलाई पर,
किसी और का स्पर्श पहन लिया है तुमने?

इसीलिये भेज दी थी क्या
वो घड़ी मेरे साथ!

सुबह से मौसम खराब था
पता नहीं छतरी ले गए थे
अपने साथ या नहीं