भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक कथा / बद्रीनारायण

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:13, 3 मार्च 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बद्रीनारायण |संग्रह= }} अपने प्रिय को सुनाता हूँ एक कथा ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने प्रिय को सुनाता हूँ एक कथा

जैसे एक बढ़ई गढ़ता है लकड़ी को

रच देता है काठ का घोड़ा

एक जादूगर आता है और उसे छू लेता है

सजीव हो उठता है काठ का घोड़ा

एक राजकुमार कसता है उस पर जीन

और नीले आकाश में उड़ जाता है

कितने भाग्यशाली हैं हे प्रिय

काठ का घोड़ा, राजकुमार और नीला आकाश

उनसे भी भाग्यशाली है हे प्रिय

लकड़ी को जोड़कर नया संसार रचता

वह बढ़ई

काश मैं भी तुम्हें रच पाता,

तुम एक फूल होती जिसमें खिला होता

मेरा प्यार

तुम सावन की बारिस होती

जिसमें बरसता रहता प्यार

तुम ब्रह्मावर्त से आने वाली मलयनील

होती

जिसमें

महकता रहता प्यार

तुम वो नदी होती

जिसमें छल-छल मचलता होता मेरा प्यार,


मैं कदली बन में खोया

अकेला ढूँढता हूँ तुझे