भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक कविता-एक वजूद / अर्चना कुमारी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:16, 16 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना कुमारी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी हर कविता
मेरा एक किरदार होती है
एक मुकम्मल शख्सियत
जब चोट खाती है
डाली से टूट जाती है
सूखे पत्तों की तरह
पाँव तले दबने से
निकलती है आवाज रुखी सी
नमी का कोई लफ्ज नहीं होता
अहसास की कोई किताब नहीं होती
वही थी मैं
जो तुम नहीं समझे
बरस रही है हँसी
रात की बाँहों से
सवाल नाच रहे हैं
आँगन में घूँघरु बाँधकर
कि मैं अक्सरहाँ कुछ और थी
तुम कुछ और समझते रहे
अब तलाशियाँ खत्म होती हैं पते की
मैं की
कि मेरे बाद कोई मुझसा मिले तो पूछना
आग से दामन जलाकर
कौन फूँकता है फफोले किसी और के!!
मेरा किरदार तब भी सजदा था
अब भी इबादत है!!