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एक कविता सहारनपुर / अनुज लुगुन

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जिन्हें पेड़ होना था वे आतताई हुए
जिन्हें छाँव होना था वे बंजर हुए
और जो दलित हुए
उन्हें गुठलियों की तरह रोपा जाता रहा संसदीय खेत में

मजदूरी अब विषय नहीं जाति का उत्सव है
अब हत्याओं की होड़ कारीगरी है
मरे हुए तालाब में लाशें नहीं
विचारधाराएँ तैर रही हैं
जिन्हें विमर्श रुचिकर नहीं लगा
प्रति विमर्श को उन्होंने खंजर की जगह दी
यह साहित्य में है, यह चिन्तन में है
यह राजनीति में है, यही सहारनपुर है

जिनकी सन्तानों को पेड़ होना था
जिनकी सन्तानों को हरा होना था
वे समाजशास्त्र के विषय में फेल हुए
और वे उठा लाए अपने पुरखों की हिंसक क़ब्रें
झूठी शान और स्वाभिमान का जातीय दम्भ
इतना क्रूर और इतना ज़हरकारी कि बौद्धिक तक उससे मुक्त नहीं
ख़ून वहीं से रिस रहा है
गोली वहीं से चल रही है

सबको होना तो पेड़ ही था
हरे होते, फूल होते, साँसे होती
लेकिन छूटता कैसे उनका अहंकार
और भूलते कैसे हम यातनाएँ
कब तक भंगी कहलाते
कब तक आदमी न कहलाते
होना था ही इतिहास में, जो हुआ सहारनपुर में
क्या कुछ नहीं हुआ हाल ही में गढ़चिरौली में?

मुक्त नहीं हैं हम विभाजन से
तटस्थ नहीं हैं हम सवालों से
हम पहचाने जाएँगे आख़िर
गोली चलेगी जब
तब किधर होगा हमारा सीना
यहाँ वर्ग है, विमर्श नहीं
यहाँ वर्ण है, बहस नहीं
'यह गोली दागो पोस्टर है' विज्ञापन नहीं

शुक्र होगा सब यह जान जाएँ
कौन बकरी चरावे जेठ में
कौन कलेजा सेंके ग़ुलामी में
कौन लिखे लाल इतिहास
साँवले चेहरों के नीले कन्धों पर.?

यह विमर्श है यातनाओं का
जिन्हें न रुचे वह लौटें अपने जातीय खोल में
और हमें ललकारें
यह युग हमारा है,यह इतिहास हमारा है
चलेंगे साथ वे जो मानुख होंगे, खरे होंगे।

(15/05/18)