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एक किंवदती का पीछा करते हुए / रमेशचन्द्र शाह

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जंगल का कवच ओढ़
छका सगे रिपुओं को
कठिन था पहँचना इस सुरक्षित चोटी तक
करने अज्ञातवास

लेकिन...उतरना यूँ...ख़ामख़ाह
बिना किसी मार्ग के
समय से पूर्व ही
किसनें था प्रेरा हमें?

किस स्वप्नादेश का
पीछा करते हुए
भटक रहे कबसे हम?

मुँह बाए खाइयाँ...खड्ड खुले चौतरफ़ा
कंकरीली चूर-चूर चट्टानें लुढ़कतीं
पाँवों और पहियों से भी सरपट...

हमें है भरोसा सिर्फ़
अगम-‍अगोचर उस
अपने मार्गदर्शक का
जो
पहुँच से परे हमारी चीखों-कराहों के
खींचे लिए जाता हकम
एक किंवदंती सा
आगे...और आगे, बस

जैसे चरमकोण पर
मरुस्थल की प्यास के
भेंटती मरीचिका
वैसे ही, अकस्मात्
दूर...किसी अतलांत
गह्वर से उठी गूँज
टकराई कानों से

किस कदर रपटीली
आखिरी रपट थी वह!

लुढ़कते पुढ़कते हम
आ गए गुफ़ा के द्वार
जिसका था दिखा स्वप्न

जिस पर जड़ा ताला
और" महावतार बाबा की गफ़ा"
लिखा देखकर
" जय हो" - यह बोला ज्यों
बियावान
खुद हमसे


थोड़ा और उतरते ही
समतल हो गई राह
उतर गया
जंगल का कवच भी
अपने-आप

ओढ़ खुलापन फिर से
परिचित पठार का

निकले हम फिर अपने
जन्मजात शत्रुओं से
मांगने अपना घर

जाने कौन सी बार!