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एक झीना-सा परदा था / गोरख पाण्डेय

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एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख़्तों की लहराती हरियालियाँ
झील में चाँद कश्ती चलाता हुआ
और ख़ुशबू की बाँहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियाँ कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चाँदनी उँगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ़ बेख़ुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेख़ुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आँखें खुलीं...
ख़ुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी ।