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एक झुर्री चन्द सफ़ेद बाल और आइसोटोप-4 / तुषार धवल

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उम्र की कई मज़ारें लाँघ आए इस भूख को लिए यहाँ तक
चालीस के गाँव में जहाँ अटपटा अनजाना बहुत कुछ है
उसके प्रवेश द्वार पर कोई प्रहरी नहीं है सिवा मोटे अक्षरों में लिखे इस ‘रिपेलेंट’ शब्द के :‘क्षय के संकेत’
पढ़ते ही जिसे हर कोई लौट जाना चाहता है वहीं उसी पिछले पड़ाव पर लेकिन
लौटने के संकेत मिटा दिए गए हैं... सीट बेल्ट बाँध लें !
अचानक उस अवश्यमभावी अन्त की दहकती आँखों में अपनी छाया पिघलती नज़र आती है
अचानक किसी तेज़ बहाव में जैसे अँगुली से पकड़ छूट रही हो देह की वह मुझसे छूटती जा रही है और मैं पूरी ताक़त से उसे पकड़े रखना चाह रहा हूँ "ठीक से पकड़े रहो छोड़ना मत बह जाओगे !”

चालीस के गाँव ऐसे ही पहुँचते हैं छूटते पकड़ते

वहाँ के वासी जो कई सदियों से वहीं रहते आए हैं ढाढ़स बँधाएँगे
अब ही तो ज़िन्दगी खुलेगी-खिलेगी
अब दुनिया नज़र आएगी साफ़-साफ़ और अपने पत्ते ठीक-ठीक खेल पाओगे तुम
देखो ! तुम्हारी बोतल जो ज़रूरत से ज़्यादा भरी हुई थी अब बिल्कुल सही माप तक भरी है और तुम्हारी रातों में भी बेखटका दम भरपूर भरा है

दम लगा लो दाम लगा लो
यह चाम का खेल है बाबू !

चालीस का चारा
चखा नहीं सो बे-चारा !!

कितने दिलासे हैं मौत की दहशत में
धर्म दर्शन पंथ कण्ठ
मृत्यु की प्रति सृष्टि हैं
उसी की छाया में उसी से सम्वाद

ये दवाइयाँ तुम्हारी यह सलाह भी डॉ. आदिल गाबावाला
मुझे याद दिलाते हुए कि ब्लड-प्रेशर की गोलियाँ सुबह नाश्ते के बाद हर रोज़ लेनी है
यह दिलासा भी कि यह तो बड़ा कॉमन है आजकल , यू नो ! द लाइफ स्टाइल थिंग... !

मृत्यु के कितने हाथ हैं और उन पर लकीरें कितनी
श्मशान जा कर लौट आते हैं जीवित अपने केन्द्र में
जीवन का जड़ से द्वंद
अमर्त्य आकांक्षाओं का अदम्य आत्मनिर्वाण
धर्म दर्शन आस्था पर्व सभी चालीस के प्रवेश द्वार पर ही सनातन काल में ठिठके हुए हैं
और वहीं उसी जगह यह जगत भी वैसा ही खड़ा रह गया है उसी मनःस्थिति में अब भी युवा पर पका हुआ मृत्यु के खिलाफ अपनी रचना उगाहता हुआ अपनी अमरता गढ़ता हुआ
वह बूढ़ा नहीं होता जीवन के प्रति अदम्य आशाओं से भरा हुआ
वहीं ईश्वर वहीं धर्म वहीं दर्शन सदियों का बूढ़ा पर चालीस के लगभग ना जाने कब से खड़ा
उसे उस प्रवेश द्वार में नहीं जाना है ‘क्षय के संकेत” पढ़ लेने के बाद

धरती प्रवेश कर गई है उस गाँव में और विश्व भी
पर जगत वहीं खड़ा है
चालीस का चारा चरता
जहाँ मैं हूँ अभी
और हम सब जहाँ से कुछ पहले ही रुक जाना चाहते थे
उस प्रवेश द्वार से ठीक थोड़ा पहले

अब चाँद ढल चुका है
और पंछी कुनमुनाने को हैं
ब्रह्म बेला का प्रथम संकेत हवा में कहीं दूर से आती फूल की कोई ख़ुशबू
एक ख़ुशबू मेरे इन-बॉक्स में चोरी छुपे भेज दी गई है
सुदूर किसी इतिहास से पारिजात की
सबकी आँखें बचा कर भेजा गया एक संदेश शुभकामना का
इस ‘अन-नोन सेंडर’ को मैं शायद पहचान गया हूँ
कुछ झूम उठता है मेरे भीतर झनक उठता है इत्र महसूस करता हूँ अपने हर ओर

आइए श्रीमान ! चालीस के गाँव में स्वागत है आपका !