भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक ठेका मज़दूर की चिट्ठी / अन्तोनियो जासिन्तो / उज्ज्वल भट्टाचार्य

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:03, 26 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अन्तोनियो जासिन्तो |अनुवादक=उज्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं तुम्हें एक चिट्ठी लिखना चाहता था
मेरी प्यारी,
एक चिट्ठी जो कहेगी
मेरी कामना के बारे में
तुम्हें देखने के लिए
उस डर के बारे में
कि तुम्हें खो न बैठूँ
नेक सोच से ज़्यादा उस अहसास के बारे में
जो कहा न जा सकता हो उस बदी के बारे में
जो मुझे खदेड़े जाती है
उस तड़प के बारे में जिसके सामने मैंने हथियार डाल दिए...।

मैं तुम्हें एक चिट्ठी लिखना चाहता था
मेरी प्यारी,
एक चिट्ठी जिसमें हमारी छिपी हुई बातें हों,
एक चिट्ठी जिसमें तुम्हारी यादें हों,
तुम हो
हिना जैसे लाल तुम्हारे होंठ हों
मिट्टी की तरह काले तुम्हारे बाल हों
शहद जैसी मीठी तुम्हारी आँखें हों
जँगली सन्तरों की तरह ठोस तुम्हारे सीने हों
बनबिलाव जैसी तुम्हारी चाल हो
तुम्हारा सहलाना हो
जो मुझे यहाँ कहीं नही मिलता है...।

मैं तुम्हें एक चिट्ठी लिखना चाहता था
मेरी प्यारी,
जिसे तुम आह लिए बिना न पढ़ सको
जिसे तुम पापा बोम्बो से छिपाती रहो
जिसे तुम मम्मी कीज़ा को न दिखाओ
जिसे तुम बार-बार पढ़ती रहो
कभी उसे भूले बिना
एक चिट्ठी जिसकी कोई
तुलना ही न हो सारे किलोम्बो में ।

मैं तुम्हें एक चिट्ठी लिखना चाहता था
मेरी प्यारी
एक चिट्ठी जिसे बहती हवा साथ ले आए
एक चिट्ठी जिसे काजू और कहवे के पौधे
लकड़बग्घे और भैंस
घड़ियाल और तितली
सभी समझ सकें
ताकि हवा में अगर वह खो जाए
तो जानवर और पौधे
हमारे तीखे दर्द पर रहम करते हुए
गीत से गीत तक
रुदन से रुदन तक
चहकने से चहकने तक
बिल्कुल पाक तुम तक ले आएँ
जलते हुए शब्दों को
उनमें छिपे दर्द को
जो मैं तुम्हें लिखना चाहता था...।

मैं तुम्हें एक चिट्ठी लिखना चाहता था
लेकिन ओ मेरी प्यारी, मुझे समझ में नहीं आता
ऐसा क्यों हैं, क्यों, क्यों ऐसा है, मेरी प्यारी
कि तुम पढ़ नहीं सकती
और मुझे – ओ अफ़सोस ! – लिखना नहीं आता !

अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य