Last modified on 27 अक्टूबर 2015, at 03:23

एक दिन हक़ीक़त की आग में वो जलते हैं / ज़ाहिद अबरोल

द्विजेन्द्र 'द्विज' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:23, 27 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


एक दिन हक़ीक़त की आग में वो जलते हैं
उम्र भर ख़यालों की गोद में जो पलते हैं

इस क़दर हुए रूस्वा, हम तिरी महब्बत में
सर उठा के चलते थे, सर झुका के चलते हैं

लोग हैं कि जैसे हों, बांस के घने जंगल
आग को जनम दे कर, ख़ुद ही उसमें जलते हैं

हम पुरानी यादों को, भूल तो गए लेकिन
अब भी इन मज़ारों पर, कुछ चिराग़ जलते हैं

चाह कर भी हम जिनका, सर कुचल नहीं सकते
मन की आस्तीं में तो, ऐसे सांप पलते हैं

बस गये हैं हम “ज़ाहिद”, आ कर ऐसी नगरी में
रोज़ जिसकी गलियों से, ता‘ज़िये निकलते हैं

शब्दार्थ
<references/>