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एक नोटिस का सच / संदीप शिवाजीराव जगदाले / प्रकाश भातम्ब्रेकर

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आप आते हैं
और थमा जाते हैं एक नोटिस
मेरे हाथ में
चन्द रूपल्ली दे मारते हैं
मेरे मुँह पर
यह कहकर —
‘यह रक़बा अब हमारा हो गया है
इस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रहा ।’

आप आगन्तुक हैं
अपरिचित हैं
आपके चेहरे पर उद्दण्डता का भाव हैं
और गर्व भी
तथा बेशर्म बेहयाई भी

मुझे उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं
किन्तु नहीं जानते आप
कि मिट्टी का जुनून क्या होता है !
मिट्टी के संग ओर-पोर
मृण्मय हो गया हूँ मैं

ग्रीष्म में ज़मीन के तप्त होने के दौरान
उस तपिश की झुलसन के
रू-ब-रू होता रहा है मेरा पूरा बदन
वर्षा-ऋतु में बीज अँकुरित होने के दौर में
एक कोंपल उग आती थी
मेरे भी अन्तस में
समूचे कृषि क्षेत्र में लहराती पवन
समोयी होती थी मेरी साँसों में

मेरी इस सम्पूर्ण धरोहर को
क्या अलग कर सकेंगे आप
इस बाँध के पानी से ?
ठसाठस हलहलाए भुट्टे में
बराबर का हिस्सा रहता था
पँछियों-परिन्दों का भी
इसका हर्ज़ाना कैसे चुकाएँगे आप ?

पँछियों की ये आहें
भला चैन से रहने देंगी आपको ?

मैं जानता हूँ कि
कपास को
पी०एम० के महँगे लिबास में
आलू को कुरकुरे वेफ़र में
तथा धान की बाली को
बीयर की झाग में तब्दील
करने की फ़िराक़ में
आएँ हैं आप यहाँ

लेकिन पता है आपको ?
कि काली माँ की सतह पर
घनी हरी चादर
बिछाया करता था मैं
और उस हरीतिमा को साझा करता था
हर ज़रूरतमन्द के साथ
और ऐसा करिश्मा करना
यक़ीनन आपके बस का नहीं ।

मूल मराठी से अनुवाद : प्रकाश भातम्ब्रेकर