भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक बूँद / सियाराम शरण गुप्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:59, 29 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"मैं हूँ कृपण कहाँ आई तू
ले कर जीवन भर की प्यास?
दे सकता हूँ एक बूँद मैं,
जा तू अन्य धनी के पास।"

"बस बस, एक बूँद ही दे दे!"
कहा तृषार्ता ने खिलकर-
"किसके पास, कहाँ जाऊँ अब
तुझ-से दानी से मिलकर?

सिक्ता की कंटक शैय्या पर
इसी बूँद की आशा में
आतप के पंचाग्नि ताप से
डिगी नहीं हूँ मैं तिल भर।

मेरे पुलक-स्वाति के घन हे।
पूरा कर मेरा अभिलाष;
अधिक नहीं, बस, इस सीपी को
एक बूँद की ही है प्यास।"