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एक मुल्क था जर्मन / ग्युण्टर ग्रास / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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किसी ज़माने में एक मुल्क था,
कहा जाता था जिसे जर्मन ।

ख़ूबसूरत था वह,
दक्षिण में पहाड़ी और उत्तर में सपाट
और पता नहीं था उसे,
आख़िर किया क्या जाय ।

तो उसने एक जंग छेड़ी,
क्योंकि वह दुनिया में
हर कहीं होना चाहता था,
पर हो गया और भी छोटा ।

अब आया एक विचार बूट पहनकर,
जब जंग छिड़ी तो बूट पहने गया दुनिया देखने,
जंग जब वापस घर लौटी,
मासूम बन कर रहा ख़ामोश,
मानो कि उसने बस चप्पलें पहन रखी थीं,
मानो कि बाहर कोई भी बुराई नहीं थी दिखने को ।

लेकिन पीछे मुड़कर देखने पर बूट पहना यह विचार
लगता था बेशक अपराध सा : आख़िर इतने सारे मुर्दे ।
फिर उस देश को, कहते थे जिसे जर्मन, बाँट दिया गया ।

अब दो बार था यह नाम और अब भी उसे,
पहाड़ी और सपाट जैसाकि वह था,
पता ही नहीं था, आख़िर किया क्या जाए ।

थोड़ी सोच के बाद दोनों हिस्सों ने आख़िर
पेश किया ख़ुद को एक तीसरी ज़ग की ख़ातिर ।
तब से मौत की कोई बात नहीं, अमन चैन दुनिया में ।

मूल जर्मन से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य