भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक शाम / अनुपमा चौहान
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:58, 18 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुपमा चौहान }} {{KKCatKavita}} <poem> बिखरे हु...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बिखरे हुये लम्हों की लडी बना ली है
जब चाहे गले मे डाल ली जब चाहे उतार दी
झील का सारा पानी उतर आया आँखों में
न जाने कितनी गागर खाली हैं
तैरता था उसमें तिनका कोई
जो यूँ ही आँखों छलक गया कभी
हौले से उतरूँ सैलाब की रवानियों में
कि मेरी गागर अभी खाली है
इन ज़ुल्फों में न जाने कहाँ
सूरज की लालिमा खोती गयी
और घटायें बन कर फिर
झील में बरसने लगी
किनारे बैठे सोचती रही
और शाम ढलती रही