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एक श्रावणी रात्रि की महक / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

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सावन की एक भींगी सी काली रात
आधी से ज्यादा बीत चुकी थी;
आँखें खुल गयी थीं यकायक
शायद बंगाल की खाड़ी के हाहाकार से।

बारिश तो थम चुकी थीं; पर
दूर दिगंत तक फैला काला आकाश
धरती को समेटे अपनी बाहों में मानो
सुन रहा था शायद उसी हाहाकार को।

थम चुकी थीं बंगाल की खाड़ी की उच्छ्वासें
कोस दर कोस शांत पड़ चुकी है जमीन भी
लगा मानो कोई गुनगुना कर कुछ कह सा गया कानों में;
सारे धुंधले हास्य, धूमिल कहानियाँ और प्रेम भंगिमाएं
घुल मिल गये थे जो इस अंधकार में,
धीरे धीरे ही सही, जग कर ढूंढ रहे थे मुझे
शायद इस जीवन जंजाल में।

कभी सोचता हूँ तो
खुल जाते हैं यादों के कुछ झरोखे
कहीं दूर – बहुत दूर, नीरव क्षितिज के भी उस पार
और फिर बंद हो जाती हैं वे खिड़कियाँ।

काश मैं झाँक भी पाता यादों के उन झरोखों से, तो
झकझोरता जा कर उन निःशब्द काली रातों को,
उन उनींदे ख्वाबों को, उन अलसायी आत्माओं को,
थपथपाकर जगाता उन्हें,
और मलते हुये आँखों को एकाकार हो जाता भटकते मेघ की ही तरह
सावन की उन्हीं काली सुनसान रातों में,
उन्हीं उनींदे ख्वाबों में,
उन्हीं अलसायी आत्माओं में,
उन्हीं जाने पहचाने चेहरों में।

तकिये पर सर रखे नींद में डूबा
रात बीतते ही और भी गहरी नींद में चला गया था
कल सुबह की धूप के साथ ही जागने के लिए।