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ऐ ज़िन्दगी मुझे तू ज़रा आज़मा के देख / ज्ञान प्रकाश विवेक

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ऐ ज़िन्दगी मुझे तू ज़रा आज़मा के देख
मैं आईना हूँ मुझमें ज़रा मुस्कुरा के देख

मैं रेत पर लिखा हुआ अक्षर नहीं कोई
तुझको नहीं यक़ीन तो मुझको मिटा के देख

शीशा हूँ टूट कर भी सदा छोड़ जाऊँगा
पत्थर पे एक बार तू मुझको गिरा के देख

तुझमें परिंद अपनी बसाएँगे बस्तियाँ
ख़ुद को किसी शजर की तरह तू बना के देख

सपना हूँ मैं तो फेंक दे आँखों को खोलकर
आँसू हूँ मैं तो अपनी पलक पर बिठा के देख

क्या जाने टूट जाए अँधेरों का सिलसिला
इन आँधियों में तू भी ज़रा झिलमिला के देख