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औक़ात / मनोज श्रीवास्तव

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औक़ात

कमीज़ का बटन और
उसमें हीरक नग
तुम्हारी ऊंची गुणवत्ता का
प्रामाणिक दस्तावेज़ है

जब मैं पहली बार
मिला था तुमसे
आँखें नीची किए हुए
और तूफ़ान में तितलियों के
पंख-सरीखे कांपते हुए,
तुम कनाट सरकस के मोड़ पर
चमचमाती मर्सिडीज़ से
मुझे धकियाते हुए
धाराप्रवाह झिड़कते हुए
जैसेकि किसी काली बिल्ली ने
तुम्हारा रास्ता काट दिया हो,
मई-जून की
अंगारों वाली आँखों से
तुमने दुतकारा था मुझे

तब, तुम्हारी द्रुतवाहिनी के
सामने आने जैसे
अनकिए अपराध पर मैं
पछताते हुए
और अपना बूट-पालिश बक्सा लिए
दुबक गया था
सूखी नाली के खांचे में

बरसों बाद भी मुझे
याद हैं वे
रोब-दाब से किटकिटाते दांत,
मेरे दिल में चिंगारियां उड़ेलती आँखें
जिनकी दाहक चमचमाहट में
आज तक खोया रहा हूं

इतने बरसों से मैंने
मच्छर-मक्खियों की
मनसायन भिनभिनाहट के बीच
मोटरगाड़ियों की
सोंधी गंध व सुरीली धुन पीते हुए
तुम्हें इसी मोड़ से
देखा है सालों-साल
तुम्हारी कारों के रंग बदलते हुए

कभी-कभी
अपनी आँखों की रोशनी गुल होते
उस लड़कपन से
अचानक बुढ़ापे में ढलते हुए
मैंने एहसास किया है
अपने चींकट बालों के झड़ते हुए
और मौसम की झिड़कियों से
दिन, सप्ताह, माह, साल की लताड़ों से
अपने बदन से पेशियों को मोम जैसे
टप-टप गलते हुए
मुंह के दांतों के फना होते हुए
बखूबी एहसास किया है
जैसेकि--
सूरज की थोक गरमी लिए धूप
मेरी पीठ पर रोज़ आराम फरमाकर
कब जमीन पर सरककर
या तो पाताल में समा जाती है
या रात की नीरवता में
शीतलता तलाशने निकल जाती है

जिस तरह मेरी सपनीली दुनिया में
तुम्हारे चमचमाते जूतों के ख़्वाब
ललचाते हैं मुझे,
उसी तरह मुझे विश्वास है
मैं अपने बूट-पालिश ब्रशों से
अपने कुरूप-काले ख़्वाबों को
झकाझक चमकाकर
अपनी झिंझरी झुग्गी में रखी
लंगड़ी-उटंग खटिया पर
उतार लाऊंगा.