भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरतें-1 / संध्या नवोदिता

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:57, 14 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संध्या नवोदिता |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> कहाँ हैं औरत…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ हैं औरतें ?
ज़िन्दगी को रेशा-रेशा उधेड़ती
वक़्त की चमकीली सलाइयों में
अपने ख़्वाबों के फंदे डालती
घायल उँगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें

एक रात में समूचा युग पार करतीं
हाँफती हैं वे
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो रही हैं औरतें

अपने दुखों की मोटी नक़ाब को
तीख़ी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलाँचे मारने की फिराक में
ओह, सूर्य किरनों को पकड़ रही हैं औरतें