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कजली / विश्वनाथ प्रसाद शैदा

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रहलीं करत दूध के कुल्ला, छिल के खात रहीं रसगुल्ला,
सखी हम त खुल्लम-खुल्ला, झुला झूलत रहीं बुनिया फुहार में,
सावन के बहार में ना। झूला झूलत रही॥
हम त रहतीं टह-टह गोर, करत रहलीं हम अँजोर,
मोरा अँखिया के कोर, धार काहाँ अइसन तेग भा कटार में,
चाहे तलवार में ना। झूला-झूलत रहीं॥
हँसलीं चमकल मोरा दाँत, कइलस बिजुली के मात,
रहे अइसन जनात, दाना काहाँ अइसन काबुली अनार में,
सुघर कतार में ना। झूला-झूलत रहीं॥
जब से आइल सबतिया मोर, सुखवा लेलसि हम से छोर,
झरे अखियाँ से लोर, नइया मोर परल बा ‘शैदा‘ माहाधार में,
सुखवा जरल भार में ना। झूला-झूलत रहीं॥