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कभी-कभी सोचती हूँ मैं / अनिता भारती

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कभी-कभी सोचती हूं मैं
क्या सोच कर बहस करते हैं हम
मात्र बहस के लिए बहस है
या कुछ निष्कर्ष निकाले जाएँगे

तुम्हारे स्वार्थों के तकिए के नीचे
बिछे नोट की तरह
हरदम जब इस्तेमाल होंगे
तब ही दिखेंगे हम

तुम ‘मैं’ कहते हो
और मैं ‘हम’
तुम्हारे मैं में सिमटी है
आत्ममुग्धता, प्रंशसा
और
हमारे हम में छिपी
है नीले सूरज की आग