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कभी तो सोच तेरे सामने नहीं गुज़रे / मजीद 'अमज़द'

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कभी तो सोच तेरे सामने नहीं गुज़रे
वो सब समय जो तेरे ध्यान से नहीं गुज़रे

ये और बात के हूँ उन के दरमियाँ मैं भी
ये वाक़ए किसी तक़रीब से नहीं गुज़रे

उन आइनों में जले हैं हज़ार अक्स-ए-अदम
दवाम-ए-दर्द तेरे रत-जगे नहीं गुजरे

सुपुर्दगी में भी इक रम्ज़-ए-ख़ुद-निगह-दारी
वो मेरे दिल से मेरे वास्ते नहीं गुजरे

बिखरती लहरों के साथ उन दिनों के तिनके भी थे
जो दिल में बहते हुए रूक गये नहीं गुज़रे

उन्हें हक़ीक़त-ए-दरिया की क्या खबर ‘अमजद’
जो अपनी रूह की मंजधार से नहीं गुज़रे