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कमी जब यार की मुझको कभी मालूम होती थी / मासूम गाज़ियाबादी

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कमी जब यार की मुझको कभी मालूम होती थी।
मेरी हर साँस मुझको आख़िरी मालूम होती थी।।

वो महफ़िल यूँ तो ख़ुशियों से भरी मालूम होती थी।
खूलूस-ओ-फ़िक्र की लेकिन कमी मालूम होती थी।।

किसी की आँख नम थीं और किसी के बाल बिखरे थे।
फ़क़त दो-चार होठों पर हँसी मालूम होती थी।।

कमर से पेट चिपके जा रहे थे बिकने वालों के।
कि हँसती आदमी पर ज़िन्दगी मालूम होती थी।।

मैं बेकस और मज़लूमों के ग़म से दूर था जब तक।
मेरे चेहरे पे भी गोया ख़ुशी मालूम होती थी।।

छुपाती जिस्म हाथों पे या वो टुकड़ों पर फैलाती।
हया अस्मत फ़रोशों में फँसी मालूम होती थी।।

वही मासूम से चेहरे बिके बाज़ार में जिन पर।
यतीमी, बदनसीबी, बेबसी मालूम होती थी।।