भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कर न पाया सर कलम जब तीर से, तलवार से / डी.एम.मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:04, 4 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=डी. एम. मिश्र |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> कर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कर न पाया सर कलम जब तीर से, तलवार से।
जाँ हमारी ले गया वो मुस्कराकर प्यार से।

वह समय था झूठ भी उस शख्स का लगता था सच,
यह समय है सच भी उसका है परे एतबार से।

देख पाता था न माथे का पसीना वो कभी,
अब वही बेफिक्र है अपने उसी बीमार से।

वो मोहब्बत, वो नज़ाकत, शोखियाँ वो अब कहाँ,
अब तो नाउम्मीद हूँ इस बेवफा सरकार से।

देखियेगा वो शिकारी भी फँसेगा जाल में,
आज ले ले लुत्फ़ वो मासूम के चीत्कार से।

उस तरफ है यार का घर, इस तरफ डेरा मेरा,
बीच में गहरी नदी है डर लगे मँझधार से।

खुश हूँ मैं दुनिया में अपनी माफ़ करना दोस्तो,
खौफ़ मैं खाने लगा अब हर बड़े क़िरदार से।