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कवि सम्मेलन के पण्डाल के बाहर / विजय चोरमारे / टीकम शेखावत

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कवि-सम्मेलन के पण्डाल के बाहर
भीड़ में मिला
जाना पहचाना चेहरा
पूछ रहा था नए कविता-संग्रह के विषय में
असमय झुर्रिया चेहरे पर, बढ़ती उम्र की
आँखों में बुझे हुए सपने

पहचान में भी नहीं आ रहा था
और उससे मुँह भी नही फेर सकता था
ऐसी विचित्र उलझन में मै
अन्दाज़ा लगाने के लिए मैं बढ़ाता रहा बात पर बात
यहाँ की, वहाँ की, मौसम की
बातों-बातों में
कौंध गई
उसकी कविताओं की बिजली
मेरे रोम-रोम में

सोलह बरस बीत गए इस बीच
न कोई पता न ठिकाना
अब याद आ गए वे कविताओं वाले दिन
काव्य-पाठ प्रतियोगिताओं वाले दिन
पुरस्कार के लालच वाले दिन
तालियों की गड़गड़ाहट पर होकर सवार
शेखी बघारते हुए निकल जाता था वह
जेब में रखकर
प्रथम पुरस्कार का लिफ़ाफ़ा

फिर वह एकाएक ग़ायब हो गया
किसी पन्ने तक पर नज़र नहीं आया
और आज ऐसे अचानक ही
कवि सम्मलेन के पण्डाल के बाहर!

तुम्हारी कविताओं का क्या हुआ ?
मैंने सहज ही पूछ लिया
पूछने पर यह सवाल, भर आई उसकी आँखे

चाय पीते-पीते कहने लगा,
अचानक पिताजी चल बसे
एकदम से सब आ गया सिर पर
घर का क़र्ज़
बहनों की शादी
माँ का इलाज
फुरसत ही नहीं मिली
खुली साँस लेने भर की
कविता का साथ कुछ ऐसे छूटा कि
फिर छुट ही गया
अब वह पुरानी डायरी भी न जाने कहाँ खो गई

आज इच्छा हुई कविता सुनने की
इसलिए आ गया
लेकिन यहाँ तो आप जैसे ऐशो-आराम से जीने वाले
दुःख की ही कविताएँ पढ रहे हैं

कुछ न बोल सका मैं !

मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत