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कवियों की प्रेमिकाएँ / शुभेश कर्ण

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कविताओं में उनसे
मेरी मुलाकात हुई

वे झमका-झमकाकर नैन
पुदीने की चटनी
पीसती जाती थीं

देवी दुर्गा की तरह
उनके रूप की कोमल आभा
आग की मुलायम लपटों की तरह
ऊँची उठ रही थीं

उनकी आत्मा के दिव्यलोक में
क्रूर और निर्मम संसार
सोया पड़ा था
नींद में कुनमुनाते हुए
बच्चों की तरह

किन्तु कल सच में उन्हें देखा
सीधे पल्ले की साड़ी में बर्तन माँजती हुई
रोटी-दाल पकाती हुई
वे कुढ़ती हुई मिलीं ।

कविताओं से कोई लगाव नहीं था उन्हें
क्योंकि उनके प्रेमी पति कवि
डूबे रहते थे हमेशा कविताओं में

और जब कभी लौटते थे
उनकी बाँहों में, जीवन में
कविताएँ तलाशते हुए लौटते थे

तो व्यावसायिक-सा इस्तेमाल था
उनके तुच्छ प्रेम का

जैसे-तैसे जीवन का

कई तो उनकी उपेक्षाओं की शिकार थीं
कई-कई दिन उनका
बीत जाता था अबोला

वे हर समय बच्चों के
गौरवमय भविष्य के बारे में
चिन्तित रहती थीं
सोचती हुईं
आखि़र खींचेंगी कैसे
गृहस्थी की जर्जर गाड़ी

वे आत्महीनता में डूबी हुईं दुःखी
प्रेम के लिए
विलाप करती हुई स्त्रियाँ थीं

किन्तु कविताओं में
वे बत्तख़ों की तरह
ताड़ के पेड़ों से घिरे पोखर में
जब सूरज सेव की तरह
लटका होता है लाल आकाश में
वे क्रेंक-क्रेंक करती हुईं
तैरती चली जाती थीं
हवा के घुमाव पर
अनंत की ओर ।

खजुराहो की गुफ़ाओं में
अनंत काल से केलि में लीन
अप्सराएँ हँस रही हैं

कुंठित देवता सीखा रहे हैं
केलि की विधियाँ !

केलि ही केवल क्रिया है
जिसमें वह चाहे तो बहुत मीठे मुक्के से
पीट सकती हैं देवताओं को
चाहे तो नाख़ूनों का इस्तेमाल कर सकती हैं
देवताओं के नितंबों पर
चाहे तो देवताओं की जीभ को
घुमा सकती हैं, चबा सकती हैं
गालों में ।

शेष समय यह आज़ादी नहीं है
शेष समय अप्सराएँ
थाली की जूठन होती हैं
जूते का फीता खोलती हुई ऊब
जिन्हें बात करने की तमीज़ नहीं होती
घर का कबाड़ख़ाना होती हैं अप्सराएँ
शेष समय ।

किन्तु केलि में लीन अप्सराएँ
आँखें बंद कर क्यों हँस रही हैं ?
देवता नंगे पकड़ लिए जाएँगे
क्या इसलिए हँस रही हैं ?

कहीं ऐसा तो नहीं
अप्सराएँ देवताओं के लिए नहीं
प्रतिरोध में देवताओं पर
हँस रही हों
केलि में ?