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कवियों की बस्ती / संजय कुंदन

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कवि बनने के लिए कविता लिखना काफी नहीं था
अब जरूरी था कि
कवि कुशल प्रबंधक की भाषा में बात करे

कवियों की बस्ती में आ कर हम घबराए
कहाँ तो सोचा था कि अपना मन खोल कर रख देंगे
किसी कवि की हथेली पर
मगर कविगण थे इतने सतर्क कि
हम बस उनका मुँह ताकते रह गए

लगा जैसे उन्होंने कपड़ों से ज्यादा
अपने शब्दों पर इस्तरी कर रखी हो

हमारे कपड़े तो मुड़े-तुड़े थे, बाल बिखरे
और हमारा उच्चारण इतना भ्रष्ट था कि
हम कुछ कहते हुए शरमाए

कहाँ तो हमने सोचा था कि
कवियों की बस्ती में
जरूर सुनी जाएँगी हमारी बातें
हमारी छोटी-छोटी बातें

पर यहाँ भी हमने अपने आपको सबसे पीछे पाया
जैसे हम धकिया कर पीछे कर दिए जाते थे
राशन की लाइन में।