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कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था / मुनव्वर राना

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कहीं पर छुप के रो लेने को तहख़ाना भी होता था
हर एक आबाद घर में एक वीराना भी होता था

तयम्मुम <ref>नमाज़ पढ़ने से पहले, पानी न मिलने पर मिट्टी को छू कर हाथ पैर मलना</ref>
के लिए लिए मिट्टी का टुकड़ा तक नहीं मिलता
अभी कल तक घरों में एक वुज़ूख़ाना<ref>वह स्थान जहाँ</ref>भी होता था

ये आँखें जिनमें एक मुद्दत<ref>बहुत समय </ref>से आँसू तक नहीं आए
उन्हीं आँखों में पहले एक मयख़ाना<ref>मधुशाला</ref>भी होता था

अभी इस बात को शायद ज़ियादा दिन नहीं गुज़रे
तसव्वुर<ref>कल्पना</ref>में हमारे एक परीख़ाना भी होता था

मुहब्ब्त इतनी सस्ती भी नहीं थी उस ज़माने तक
मुहब्बत करने वाला पहले दीवाना<ref>पागल</ref> भी होता था

सभी कड़ियाँ सलामत<ref>सुरक्षित</ref>थीं हमारे बीच रिश्तों की
हमें गाहे-ब-गाहे<ref>यदा-कदा</ref>अपने घर जाना भी होता था

मियाँ पंजाब में लाहौर ही शामिल न था पहले
इसी के खेत खलिहानों में हरियाना भी होता था

शब्दार्थ
<references/>