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कातिब-ए-तक़दीर मेरे हक़ में कुछ तहरीर हो / राग़िब अख़्तर

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कातिब-ए-तक़दीर मेरे हक़ में कुछ तहरीर हो
रंज हो या शादमानी कुछ तो दामन-गीर हो

आब-रूद-ए-ज़ीस्त के कुछ घूँट ज़हरीले भी हों
मैं ने कब चाहा था हर क़तरा मुझे इक्सीर हो

अहद-ए-आज़ादी से बेहतर क़ैद-ए-ज़िंदाँ हो तो फिर
तोड़ देने की क़फ़स को क्यूँ कोई तदबीर हो

तेज़ लहरें आ ही जाती हैं मिटाने के लिए
जब लब-ए-साहिल घरोंदा रेत का तामीर हो

ग़म रहे पिन्हाँ दर ओ दीवार दिल के दरमियाँ
क्या ज़रूरी है कि कर्ब-ए-ज़ीस्त की तशहीर हो