भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काफी / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:48, 21 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धरनीदास |अनुवादक= |संग्रह=शब्द प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

187.

अकथ कहानी को कहै, जापै प्रभु दाया।
सोवत जागी आत्मा, गुरु भेद लखाया॥
मूल मंत्र मूरति लखे, परिचय भइ काया।
नयन नासिका नेह ते, धुनि ध्यान लगाया।
अभि-अंतर हरि हरि रटे, घट तिमिर मिटाया।
सप्त पुरी के ऊपरे, मन पवन चढ़ाया॥
अभय पुरी आनंद भवो, तँह सुरति समाया।
बैठि संगती संतकी, धरनी सच पाया॥1॥