भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काली रात / समीर बरन नन्दी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:24, 17 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीर बरन नन्दी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> प्रेयसी रही ह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रेयसी रही है रात
निहत्था अकेला जब हुआ हूँ उसी को लगाया है गले
शरणार्थी होने से अदिगंत सब खंड-खंड हो गया है
उसी की गोद मे सर रखा, दिलासा पाया ।

रात ही थी जब कहा गया था मुझसे -- तुम ब्राह्मण पात्र नहीं
रात में ही चली थी गोली |
वो रात ही थी जब पहुँचे थे भागलपुर सेंट्रल जेल
और उस रात भी जब माँ कुएँ में कूद मरी ।

वो भी रात ही थी, जब ट्रेन में लटक कर
सतहत्तर में जे.एन.यू पहुँचा,
अंत की चमक लिए कविताएँ लिखवाई है उसने मुझसे
कैसे कहूँ उसे काली रात ।