भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काश! करघे पर बुनी जा सकती शराब / कृष्ण कल्पित

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:58, 28 मई 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक शराबी की सूक्तियाँ

अब मेरी आत्मा पर यह बोझ असह्य है. यह 'भारी पत्थर' अब इस 'नातवां' से नहीं उठता। लगभग दो साल होने को आए, जब इस नामुराद को, काली स्याही से लिखे इन पन्नों का बण्डल जयपुर के एक सस्ते शराबघर में पड़ा मिला था। इसके बाद पटना, कोलकाता और फिर दिल्ली। हर जगह एक अज्ञात काली छाया मेरे वजूद पर छाई रही। इस दौरान एक अजीब-सा अवसाद भरा नशा मुझ पर लगातार तारी रहा है।

मैं इसके लिए किसी ओझा, तान्त्रिक या कापालिक के पास नहीं गया। मैंने ख़ुद यह 'भूत' उतारने का फ़ैसला किया और इस 'कितबिया' को प्रकाशित कराने का जोखिम उठाया। शायद इसी तरह इन 'शापित' पंक्तियों से मेरा छुटकारा सम्भव हो। यह राजकमल चौधरी का नहीं -- मेरा 'मुक्तिप्रसंग' है। इति।
कृष्ण कल्पित, 30 अक्टूबर, 2006, जयपुर

तेजसिंह जोधा के लिए या भागीरथ सिंह 'भाग्य' किंवा अशोक शास्त्री, स्वर्गीय राजिन्दर बोहरा, विनय श्रीकर अथवा मधुकर सिंह के लिए; थिएटर रोड, कोलकाता की सागरिका घोष के साथ।

मस्जिद ऐसी भरी भरी कब है
मैकदा इक जहान है गोया।
-- मीर तकी मीर

"मैं तो अपनी आत्मा को भी शराब में घोलकर पी गया हूँ, बाबा! मैं कहीं का नहीं रहा; मैं तबाह हो गया -- मेरा क़िस्सा ख़त्म हो गया, बाबा! लोग किसलिए इस दुनिया में जीते हैं?"

"लोग दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जीते हैं, प्यारे। उदाहरण के लिए एक से एक बढ़ई हैं दुनिया में, सभी दो कौड़ी के... फिर एक दिन उनमें ऐसा बढ़ई पैदा होता है, जिसकी बराबरी का कोई बढ़ई दुनिया में पहले हुआ ही नहीं था -- सबसे बढ़-चढ़ कर, जिसका कोई जवाब नहीं... और वह बढ़इयों के सारे काम को एक निखार दे देता है और बढ़इयों का धन्धा एक ही छलाँग में बीस साल आगे पहुँच जाता है... दूसरों के मामले में भी ऐसा ही होता है... लुहारों में, मोचियों में, किसानों में... यहाँ तक कि शराबियों में भी!"
मक्सिम गोर्की
नाटक 'तलछट' से

पूर्व कथन

यह जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि एक सस्ते शराबघर में पड़ी हुई थी -- जिस गोल करके धागे में बाँधा गया था। शायद इसे वह अधेड़ आदमी छोड़ गया था, जो थोड़ा लंगाकर चलता था। उत्सुकतावश ही मैंने इस पाण्डुलिपि को खोल कर देखा। पाण्डुलिपि क्या थी -- पन्द्रह-बीस पन्नों का एक बण्डल था। शराबघर के नीम अन्धेरे में अक्षर दिखाई नहीं पड़ रहे थे -- हालाँकि काली स्याही से उन्हें लिखा गया था। हस्तलिपि भी उलझन भरी थी। शराबघर के बाहर आकर मैंने लैम्पपोस्ट की रोशनी में उन पन्नों को पढ़ा तो दंग रह गया। यह कोई साल भर पहले की बात है, मैंने उसके बाद कई बार इन फटे-पुराने पन्नों के अज्ञात रचयिता को ढूँढ़ने की कोशिश की; लेकिन नाकाम रहा। हारकर मैं उस जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपि में से चुनिन्दा पंक्तियों / सूक्तियों / कविताओं को अपने नाम से प्रकाशित करा रहा हँ -- इस शपथ के साथ कि ये मेरी लिखी हुई नहीं है और इस आशा के साथ कि ये आवारा पंक्तियाँ आगामी मानवता के किसी काम आ सकेंगी।
 कृ० क०