भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काश / श्रीकान्त जोशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:19, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीकान्त जोशी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> काश दुनिया …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काश
दुनिया के तमाम मुल्क़
क़ायम रख पाते अपनी ताक़तें
अपनी अस्मतें
रहते अपने दायरों में,
अपनी-अपनी ज़मीनों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों के ज़ोर बनते
सूर्य-दिशा के देश
सूर्यास्तों के शिकार न होते।
निराशाओं की कोश से जन्मे
ईश्वरों की तलाश में न रोते
न अपने अन्दरूनी मनुष्य से बिछुड़ते
न अपनी मृत्यु पर
अपने ही आँसुओं में
अपने ही चेहरों को भिगोते!