भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितनी अतृप्ति है / गोपालदास "नीरज"

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:39, 4 मार्च 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी अतृप्ति है...

कितनी अतृप्ति है जीवन में ?
मधु के अगणित प्याले पीकर,
कहता जग तृप्त हुआ जीवन,
मुखरित हो पड़ता है सहसा,
मादकता से कण-कण प्रतिक्षण,
पर फिर विष पीने की इच्छा क्यों जागृत होती है मन में ?
कवि का विह्वल अंतर कहता, पागल, अतृप्ति है जीवन में।