भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितने भारी हैं ये दिन / हरमन हेस

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:00, 27 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरमन हेस |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> कितन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितने भारी हैं ये दिन।
कहीं कोई आग नहीं जो मुझे गर्मा सके,
कोई सूरज नहीं जो हंस सके मेरे साथ,
हर चीज नंगी,
सब कुछ ठंडा और बेरहम,
यहां तक कि मेरा प्‍यार भी,
और सितारे खाली निगाहों से नीचे देख रहे,
जब से मुझे यह अहसास हुआ है
कि प्‍यार भी मर सकता है।