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किस्सा मछली मछुए का-4 / अलेक्सान्दर पूश्किन

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»  किस्सा मछली मछुए का-4

बूढ़ा फिर सागर पर आया
और विकल अब उसको पाया,
स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा
मछली तभी चीर जल धारा,
आई पास और यह पूछा-
"बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?"
बूढ़े ने झट शीश झुकाया-
"सुनो व्यथा मेरी, जल-रानी
तुम्हें सुनाऊँ दर्द कहानी,
बुढ़िया फिर से शोर मचाए
नहीं इस तरह रहना चाहे,
इच्छुक है बनने को रानी
ताकि कर सके वह मनमानी ।"
स्वर्ण मीन तब उससे बोली
"दुखी न हो, बाबा, घर जाओ
तुम बुढ़िया को रानी पाओ !"

बूढ़ा फिर वापस घर आया
सम्मुख महल देख चकराया,
अब बुढ़िया के ठाठ बड़े थे,
उसके तेवर ख़ूब चढ़े थे,
थे कुलीन सुवा में हाज़िर
होते थे सामन्त निछावर,
मदिरा से प्याले भरते थे
वे प्रणाम झुक-झुक करते थे,
बुढ़िया केक, मिठाई खाए
और सुरा के जाम चढ़ाए,
कंधों पर रख बल्लम, फरसे
सब दिशि पहरेदार खड़े थे ।
बूढ़ा ठाठ देख घबराया
झट बुढ़िया को शीश नवाया,
बोला- "अब तो ख़ुश रानी जि,
जो कुछ चाहा वह सब पाया
अब तो चैन आपको आया ?"
उसकी ओर न तनिक निहारा
इसे भगाओ, किया इशारा,
झपटे लोग इशारा पाकर
गर्दन पकड़ निकाला बाहर,
सन्तरियों ने डाँट पिलाई
बस, गर्दन ही नहीं उड़ाई,
सब दरबारी हँसी उड़ाएँ
ऊँचे-ऊँचे यह चिल्लाएँ-
"भूल गए तुम कौन, कहाँ हो ?
आए तुम किसलिए, यहाँ हो ?
ऐसी ग़लती कभी न करना
बहुत बुरी बीतेगी वरना ।"

बीता हफ़्ता, बीत गए दो,
सनक नई आई बुढ़िया को,
हरकारे सब दिशि दौड़ाए
ढूँढ़ पकड़ बूढ़े को लाए,
बुढ़िया यों बोली बूढ़े से-
"फिर से सागर तट पर जाओ
औ' मछली को शीश नवाओ,
नहीं चाहती रहना रानी,
अब यह मैंने मन में ठानी
करूँ सागरों में मनमानी,
जल में हो मेरा सिंहासन
सभी सागरों पर हो शासन,
स्वर्ण मीन ख़ुद हुक़्म बजाए
जो भी माँगूँ, लेकर आए ।"


मूल रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु